रायगढ़ । एलयूमिनियम और स्टील और शीशे के बर्तन के दौर में तांबा, पीतल और कांसे के बर्तन का युग काफी पीछे छूट गया है ।एक वह भी दौर था जब मिट्टी के बर्तन में खाना बना करता था तो खाने -पीने के लिए तांबे ,पीतल ,कांसे के बर्तन का इस्तेमाल हुआ करता था ।राजा -महाराजा ,रईसों ,सेठ -साहूकारों के घरों में सोने -चांदी के बर्तनों का इस्तेमाल भी किया जाता था ।
बेटियों की विदाई पर कांसे, पीतल से बने गगरा ,परात ,थाली ,लोटा ,गिलास ,बटुई ,बटुआ ,गंज ,
टोपिया आदि दिया जाता था ।
रायगढ़ में राजशाही काल में चक्रधरनगर क्षेत्र में कसेरों ,ठठेरों की बस्ती बसी थी जिनका कामधंधा कांसे पीतल के बर्तनों का निर्माण करना और उसे बेचना था ।इतवारी बाजार में इतवार के दिन इनकी दुकानें सजा करती थी और आसपास के गांवों से भी कसेर और ठठेरे बर्तन बेचने के लिए आया करते थे ।यह परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है ।
तांबे ,पीतल ,कांसे के बर्तनों की बात इसलिए कि आज धनतेरस है आज के दिन नए बर्तन खरीदे जाते हैं ।पुराने दौर में कांसे ,पीतल ,तांबे से बने पुराने बर्तनों को बदल कर नए बर्तन लिए जाते थे और पुराने बर्तनों की अदला बदली का भी अच्छा कारोबार हो जाता था ।ये बर्तन घर की पूँजी भी हुआ करते थे जो आड़े वक्त काम भी आते थे ।
एल्युमिनियम और स्टील से बने बर्तनों के इस दौर में पीतल ,कांसा ,तांबे के बर्तन बनाने वालों का काम काज बुरी तरह से प्रभावित हुआ इसमें से तो कई लोगों को अपना पुश्तैनी काम छोड़कर नए धंधे की ओर बढ़ना पड़ा ।
बर्तन निर्माण भी एक कला थी जिसमें धातुओं को पिघला कर उसे बर्तन के सांचे में ढाला जाता था और उसे फिर पोलिश कर चमकाया जाता था ।रायगढ़ के कसेर पारा में यह हुआ करता था पर आज तो पुराने दिनों की यादें ही शेष है।